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ओउम्

आर्य समाज सागर (म.प्र.)

स्‍थापना वर्ष 21 जनवरी 1869

रजिस्‍ट्री एक्‍ट 21 सन् 1860 के अनुसार अक्‍टूबर 1923 को तथा म.प्र. पब्लिक ट्रस्‍ट एक्‍ट के अधीन नं. 221, 33/6 सन् 53-54 की हुई।

ऐसे व्यक्ति की मदद करना है जो बदले में आपको धन्यवाद कहने में असमर्थ हो, सबसे उच्च कोटि की सेवा है।

-स्वामी दयानंद सरस्वती

आर्य समाज के उद्देश्‍य

  1. वैदिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करना।

  2. वैदिक विद्यालयों की स्‍थापना करना।

  3. हिन्‍दू धर्म की कुप्रथाओं के विरुद्व प्रचार ।

  4. हिन्‍दू धर्म के ज्ञान का सही प्रचार-प्रसार करना।

  5. हिन्‍दुओं का धर्मातंरण रोकना व जागरुकता लाना।

  6. घर वापसी /शुद्विकरण।

  7. शाकाहार का प्रचार ।

  8. हिन्‍दी भाषा राष्‍ट्रीय भाषा का प्रचार।

  9. सोलह संस्‍कार सम्‍पन्‍न कराना व जागरुकता लाना।

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विवाह संस्‍कार सम्‍पन्‍न कराने हेतु आवश्‍यक दस्‍तावेज-:

  1. वर व वधू की दसवीं कक्षा की अंकसूची की छायाप्रति।

  2. वर व वधू के आधार कार्ड की छायाप्रति।

  3. वर व वधू के 4,4 पासपोर्ट साईज के फोटो।

  4. 6 गवाह उनके आधार कार्ड या अन्‍य किसी वैलिड पहचान पत्र की छायाप्रति सहित।

आर्य समाज सागर द्वारा सोलह संस्‍कार सम्‍पन्‍न कराएं जाते हैं।

  1. गर्भाधान

  2. पु्ंसवन

  3. सीमंतोंनयन

  4. जातकर्म

  5. नामकरण

  6. निष्‍क्रमण

  7. अन्‍न्‍प्राशन

  8. कर्णवेध

  9. चूड़ाकर्म

  10. उपनयन

  11. वेदारम्‍भ

  12. समावर्तन

  13. विवाह

  14. वानप्रस्‍थ

  15. सन्‍यास

  16. अंत्‍येष्टि

आर्य समाज के नियम

  1. सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।

  2. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।

  3. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना–पढ़ाना और सुनना–सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

  4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

  5. सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।

  6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

  7. सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।

  8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।

  9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिये, किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।

  10. सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में स्वतंत्र रना चाहिए।

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गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

1. पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

2. सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

3. जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

4. नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

5. निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

6. अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

7. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

8. विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

9. कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

10. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

11. वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

12. केशान्त संस्कारः गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

13. समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

14. पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

15. अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।

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आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आन्दोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने १८७५ में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा से की थी।[1] यह आन्दोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारम्भ हुआ था। आर्य समाज में शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजाअवतारवादबलि, झूठे कर्मकाण्ड व अन्धविश्वासों को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है - विश्व को आर्य बनाते चलो।

प्रसिद्ध आर्य समाजी जनों में स्वामी दयानन्द सरस्वतीस्वामी श्रद्धानन्दमहात्मा हंसराजलाला लाजपत रायभाई परमानन्दराम प्रसाद 'बिस्मिल'पंडित गुरुदत्तस्वामी आनन्दबोध सरस्वतीचौधरी छोटूरामचौधरी चरण सिंह, पंडित वन्देमातरम रामचन्द्र राव, के बाबा रामदेव[2] आदि आते हैं।

आर्य समाज सागर  में सम्‍पन्‍न होने वाले वैदिक कार्यक्रम

  1. आर्य समाज सागर में प्रत्‍येक रविवार को प्रात: 8:00 बजे से हवन व सत्‍संग का कार्यक्रम होता है।

  2. आर्य समाज सागर द्वारा हिन्‍दू नववर्ष वर्ष प्रतिपदा व आर्य समाज के स्‍थापना दिवस पर हवन सत्‍संग का कार्यक्रम आयोजित होता है। साथ ओउम् ध्‍वज वादन भी किया जाता है।

  3. होली पर्व पर विशिष्‍ट हवन नव उपार्जित गेहूँ की जवा की आहूतियों से होता है।

  4. आर्य समाज सागर में प्रत्‍येक हिन्‍दू पर्व त्‍यौहारों पर वैदिक प्रचार कार्यक्रम व हवन सत्‍संग विद्वानों द्वारा आयोजित होता है।

  5. महाशिवरात्रि पर्व पर स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती (संस्‍थापक आर्य समाज) के बोधोत्‍सव के रूप में मनाया जाता है। इस कार्यक्रम में यज्ञ-हवन एवं आर्य समाज के विद्वानों द्वारा वैदिक प्रवचन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।

  6. प्रति वर्ष मकर संक्राति के पर्व पर आर्य समाज सागर द्वारा यज्ञ-हवन पश्‍चात समाज के बंधुओं को खिचड़ी का वितरण किया जाता है।

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